राजा देवकीर्ती
एक
महान
योद्धा
थे,
अपने
गुरु
के
guidance में वे युद्धकला
में
अत्यंत
निपुण
हो
गये
थे,
राजा
देवकीर्ती
ने
अनेक
महारथियों
को
पराजित
किया
था
जिससे
उनके
अंदर
अभिमान
आ
गया,
king Devkirti को दूसरों
को
हराने
में,
उनको
नीचा
दिखाने
में
मजा
आने
लगा,
दूसरों को हराने उनको नीचा दिखाने का अभिमान सबसे बुरा होता है, इसमें व्यक्ति सही गलत का भेद करना भूल जाता है,
इसी अभिमान
में
एक
दिन
, king अपने गुरु
से
मिलने
गये
और
बड़े
दंभपूर्ण
स्वर
में
बोले-“
गुरुदेव!
मेरा
स्वागत
करें,
आज
मैं
सब
योद्धाओं
को
हरा
कर,
आप
का
नाम
ऊँचा
कर
के
लौटा
हूँ,”
राजा के इन
दंभपूर्ण
शब्दों
को
सुन
कर,
उनके
गुरु
हँसे और बोले-“
देवकिर्ती
तूने
सब
को
पराजित
कर
दिया,
पर
क्या
स्वयं
को
पराजित
कर
पाया
?”
गुरु कि यह
बात
सुन
कर
राजा
देवकिर्ती
को
बड़ा
surprise हुआ, और वो
बोले-“
गुरुदेव!
क्या
अपने
को
भी
कोई
पराजित
कर
सकता
है
?”
इस पे गुरुदेव
बोले
–“ बेटा!
असली
युद्ध
तो
स्वयं
के
विरुद्ध
ही
लड़ा
जाता
है,
जो
अपने
अहंकार
को
पराजित
कर
लेता
है,
उसका
ही
पराक्रम
सबसे
बड़ा
होता
है,
स्वयं
कि
दुस्प्रवृत्तियों
को
नियंत्रित
कर
लेना
ही
साधना
है
और
अपने
व्यक्तित्व
का
परिष्कार
कर
लेना
ही
उस
साधना
कि
सिद्धि
है,”
गुरु के ये
वचन
सुन
राजा
को
अपने
झूठे
अहंकार
पे
पश्चाताप
हुआ
और
उसने
अपने
अहंकार
को
दूर
करने
के
लिए
अपने विरुद्ध युद्ध
प्रारंभ
कर
दिया/
राजा देवकिर्ती
कि
तरह
हम
सभी
भी
दुनिया
से
तो
जीतने
का
प्रयास
करते
है,
पर
स्वयं
के
अंदर के दुश्मनों (बुराइयों) को भूल जाते हैं जो बाद में हमें दुनिया के आगे हमेशा के लिए हरा देते हैं इसलिए पहले स्वयं से जीतो क्योंकि तब मिली ये जीत आपकी true victory होगी जो हमेशा के लिए तुम्हारे साथ रहेगी/
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